टर्की पाकिस्तान के कश्मीर मुद्दे पर एक होने के सिलसिले की शुरुआत सितंबर 2019 के संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली के 74वें सेशन दौरान इमरान खान और एर्दोआन की न्यूयार्क में हुई मुलाकातों के दौरान हुई थी। इससे पहले डेढ़ वर्ष तक अमेरिका ने पाकिस्तान को लगभग दुश्मन की तरह अलग-थलग कर दिया था। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के पाकिस्तान को उसकी औकात दिखाते और बेईमानी के लिए बुरी तरह हड़काते हुए ट्वीट्स भी उसी समय के हैं। प्रेजिडेंट ट्रम्प का 2019 के नए साल के पहले दिन का पहला जगप्रसिद्ध ट्वीट भी उसी की देन है। इस समय नवाज़ शरीफ की सरकार जा चुकी थी और इमरान खान को फ़ौज की कृपा ने सत्ता पर बैठा दिया था। लेकिन अमेरिकी डॉलर्स पर पल रही पाकिस्तानी फ़ौज और सरकार डॉलर बंद होने के बाद अंतिम हिचकियाँ लेने लगी थी। IMF के जरिये उधार डॉलर सहायता भी अमेरिकी प्रभाव पर निर्भर करती है इसलिए इमरान खान और क़मर बाजवा सऊदी अरब के प्रिंस मुम्मद बिन सलमान के सामने गिड़गिड़ा रहे थे कि किसी तरह ट्रम्प से इमरान खान और बाजवा की मुलाकात करवा दें।
समझा जाता है कि प्रशासनिक स्तर पर तो नहीं लेकिन अपने मित्र जेरेद कुशनर, जो अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के दामाद हैं, के जरिये प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान ने इमरान बाजवा का अमेरिकी दौरा तय करवाया था। क्योंकि इसी समय अपने चुनावी प्रचार से पहले ट्रंप अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजें लौटा लेना चाहते थे और पाकिस्तान तालिबानियों पर अपने प्रभाव का प्रयोग कर तालिबान को अमेरिका के साथ वार्ता के लिए तैयार कर सकता था। (हुआ भी यही) | ट्रंप से मुलाकात के बाद अंतर्राष्ट्रीय डिप्लोमेसी न समझने वाले इमरान खान इस अमेरिकी यात्रा से इतने उत्साहित हो गए थे कि वो अपने को क्षेत्र की महत्वपूर्ण शक्ति समझ बैठे। इमरान खान और बाजवा भूल गए कि जो काम पाकिस्तान को कहा जा रहा था वह काम पाकिस्तान के कान उमेठ कर भी करवाया जा सकता था। UNGA सत्र से पहले इमरान खान सऊदी अरब गए प्रिंस सलमान ने ही भिखारी देश के प्रधानमंत्री को अमेरिका जाने के लिए अपना हवाईजहाज दिया था।
जैसा कि उनसे अपेक्षित था इमरान खान न्यूयार्क में अपने, सऊदी अरब के और अमेरिकी हितों पर फोकस करने की बजाय अपनी भारत से नफरत की मानसिकता को पोषित करने में लगे रहे। इमरान खान ने सऊदी अरब से कोल्ड वॉर में मुब्तिला टर्की और सऊदी अरब के दुश्मन मुल्क ईरान से गठजोड़ किया साथ में मलेशिया को मिलाया और सऊदी अरब का इस्लामी उम्मा पर प्रभाव कम करने के लिए एक नए मुस्लिम ब्लॉक की नींव डालने की योजना बना ली। प्रेस कांफ्रेंस में इसके अगले कार्यक्रम की घोषणा भी कर डाली और मलेशिया के कुआलालम्पुर में एक अलग मुस्लिम सम्मिट की घोषणा भी कर दी। इस हरकत ने प्रिंस सलमान को इतना नाराज कर दिया कि न्यूयार्क से लौटते समय उड़ते प्लेन को वापस बुला कर इमरान खान क़मर बाजवा और उनके साथियों को हवाईजाहज से उतार दिया गया। यहाँ यह बता देना भी रोचक है कि जब इमरान खान के कहे पर कुआलालम्पुर में दिसंबर 2019 में जब यह सम्मेलन हुआ तब इमरान खान सऊदी अरब से हड़काये जाने के कारण नहीं गए और फिर 4 फरवरी को मलेशिया जाकर यह कह दिया कि मैं दोस्तों के दबाव वजह से तब नहीं आ सका। मान लेना चाहिए कि इमरान खान ने अपने लिए मुसीबतें बढ़ा ली हैं।
जहाँ तक टर्की का प्रश्न है तो एर्दोआन सऊदी अरब को हटा कर मुसलमानों का मुख़्तार बनाने के लिये सऊदी अरब से कोल्ड वॉर में मुब्तिला है। टर्की में सत्ता में आने के बाद से एर्दोआन ने डेमोक्रेसी के स्थान पर इस्लामीकरण को अपना लक्ष्य बनाया। दरअसल एर्दोआन स्वयं को इस्लामी उम्मा का नया ख़लीफ़ा बनाने का ख्वाब पाले हुए हैं और इसके लिए वह सऊदी अरब को इस्लामी देशों के सरताज के स्थान से हटा देना चाहते हैं। एर्दोआन अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए इतना आगे जा चुके हैं कि प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान को इस्तांबुल में साउदी दूतावास में हुए पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या में फँसाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करने और फँसाने के लिए अत्यधिक प्रयास किये। दूसरी ओर क़तर द्वारा मुस्लिम उम्मा के आतंकवादियों को समर्थन देने के कारण सऊदी अरब द्वारा क़तर पर सैंक्शंस लगाने पर टर्की क़तर के साथ आ खड़ा हुआ। दरअसल एर्दोआन टर्की, सीरिया, इराक़, ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, यहाँ तक कि ओमान और यमन तक भी अपनी ख़िलाफ़त के वर्चस्व का नक्शा खींच देना चाहते हैं। इसमें एर्दोआन की नजर कुछ अन्य मुस्लिम देशों पर भी है।
प्रश्न उठता है कि विश्व भर में आइसोलेटेड 'मंगता' पाकिस्तान टर्की को क्या दे सकता है जो टर्की उसको समर्थन देने में इतना आगे जा रहा है कि भारत से दुश्मनी करने लगा है ? इसका पहला कारण लगता है कि इस्लामी ख़लीफ़ा बनने को आतुर एर्दोआन के दिमाग में कहीं न कहीं पाकिस्तान से अनैतिक तरिके से चुपचाप न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी लेने का विचार पनप रहा हो सकता है। दूसरे टर्की की नजर मिनरल रिच बलोचिस्तान की माइन्स पर भी है। यहाँ यद्यपि चीन की बलोचिस्तान में इसी आशय से उपस्थिति टर्की के अरमानों पर प्रश्नचिन्ह है। तीसरे टर्की और विशेषकर एर्दोआन ने मान लिया है कि इस्लामी जगत का सऊदी ब्लॉक भारत का मित्र है जो कि सच्चाई भी है। इसलिए इस्लाम का मसीहा बनने को उत्सुक टर्की पाकिस्तान का मित्र और भारत का शत्रु जैसा व्यवहार अपना चुका है।
अब प्रश्न यह भी उठता है कि पाकिस्तान टर्की से क्यों इतना बगलगीर हो रहा है ? पहला कारण तो वही कि अपनी आतंकवादी मैन्युफैक्चरर एंड एक्सपोर्टर गतिविधियों के कारण पाकिस्तान विश्व समुदाय में अलग-थलग पड़ चुका दुष्ट देश समझा जाता है। टर्की मलेशिया चीन ईरान के अलावा कोई देश पाकिस्तान को न अहमियत देता है न पाकिस्तान की बात सुनता है। दूसरे दुनिया में भिखारी देश की हैसियत दुनिया की जरूरतों के हिसाब से तय होती है और पाकिस्तान की हैसियत अमेरिकी रुसी और चीनी जरूरतों के अनुसार ही निर्धारित होती है। फ़िलहाल इनमें से किसी भी देश को पाकिस्तान से कोई लाभ नहीं पहुँच रहा है या बहुत कम है। मुफ़्त में डॉलर सिर्फ अमेरिका से आते थे जो ट्रंप ने बंद कर दिए। CPEC की आड़ में बलोचिस्तान और अन्य हिस्सों को चीन को बेचने का जो काम पाकिस्तान ने शुरू किया था वह अमेरिका ने रुकवा दिया है। थोड़ा बहुत पैसा सऊदी अरब और यूएई से तेल या अन्य वस्तुओं के रूप में मिल जाता है लेकिन लगता है अब उनके दुश्मन टर्की से हाथ मिला कर पाकिस्तान ने उनको भी नाराज कर दिया है। अब पाकिस्तान एर्दोआन की महत्वाकांक्षाओं से कुछ डॉलर इकट्ठे करने की जुगत में है, हालाँकि टर्की की खुद की वर्तमान आर्थिक स्थिति फ़िलहाल पहले जितनी मजबूत नहीं है।
पाकिस्तान की बेतुकी विदेश नीति और अजब गजब डिप्लोमेसी के पूंछ और सींग ऐसे गड्डमड्ड हुए हैं कि पाकिस्तानी डिप्लोमेसी जब मुँह दिखाती है तो पता चलना मुश्किल है कि डॉलर खाने वाली है या आतंक का गोबर करेगी। फिर भी ऐसी स्थिति में पाकिस्तान का कश्मीर ऑब्सेशन समझना मुश्किल नहीं है। पहली वजह तो राजनैतिक और सैनिक है। पाकिस्तान की फ़ौज को अपनी जनता को कश्मीर के नाम पर सपने बेचते सात दशक हो चुके हैं। जनता के दिमाग में बैठा दिया गया है कि बिना फ़ौज के पाकिस्तान खत्म है। दूसरे कश्मीर पाकिस्तानी जनता के दिमाग में मजहब की तरह भर दिया है। पाकिस्तान की ISI को कहीं न कहीं विश्वास है कि भारत में ISI की पसंद की सरकार आ गयी तो हारा हुआ कश्मीर जीता जा सकता है। क्योंकि भारत में पाकिस्तान समर्थक राजनितिक दल हैं, नेता हैं, कानून वाले हैं, सामाजिक कार्यकर्ता हैं, पत्रकार हैं, कुछ ब्यूरोक्रेट्स हैं, अभिजात्य वर्ग है और एक बड़ी भीड़ है जिसके दम पर मुस्लिम हितों के पोषण के नाम पर पाकिस्तान के हितों का पोषण संभव है (हास्यास्पद बात यह है कि ऐसे ही हजारों लोग एर्दोआन ने टर्की की जेलों में ठूंसे हुए हैं) । यही विश्वास पाकिस्तान एर्दोआन को दिलाने में सफल रहा है। कांग्रेस के नेता पाकिस्तान के दौरे तो करते ही रहते हैं अब टर्की में भी कांग्रेस पार्टी का ऑफिस खुल गया है जबकि टर्की में तो कोई बड़ा इंडियन डायस्पोरा भी नहीं है। वर्तमान हालात में भारत सरकार की विदेश नीति तो कारगर रही है आंतरिक सुरक्षा नीति पर सक्रियता से काम की जरूरत है । जहाँ तक मैं समझता हूँ टर्की पाकिस्तान मलेशिया छाप डिप्लोमेसी फिजूल की कसरत है।