Sunday 16 February 2020

टर्की पाकिस्तान मलेशिया छाप डिप्लोमेसी फिजूल की कसरत



"कश्मीर जितना महत्वपूर्ण पाकिस्तान के लिए है उतना ही महत्वपूर्ण टर्की के लिए भी है" यह शब्द टर्की के प्रेजिडेंट रज़ब तैयब एर्दोआन (Recep Tyyip Erdogan) ने 14 फरवरी 2020 को पाकिस्तान की नेशनल असेंबली (संसद) के सयुंक्त अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए कहे। एर्दोआन ने यह भी कहा कि हमने कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन  में भी उठाया था। एर्दोआन ने यहाँ तक कह दिया कि जिस तरह से पाकिस्तान ने 1915 में ख़िलाफ़त आंदोलन चला कर टर्की की मदद की थी उसी तरह अब पाकिस्तान कश्मीरी मुसलमानों की मदद कर रहा है। एर्दोआन को इतिहास की जानकारी नहीं है वरना अपने इस बयान पर शर्मिंदगी ही होती। जिस पाकिस्तान की बात एर्दोआन कर रहे थे 1915 में उस पाकिस्तान के विचार का भी जन्म नहीं हुआ था। वैसे तो ख़लीफ़ा राज भी कमाल पाशा (अतातुर्क) ने टर्की में डेमोक्रेसी की स्थापना कर खत्म कर दिया था।

टर्की पाकिस्तान के कश्मीर मुद्दे पर एक होने के सिलसिले की शुरुआत सितंबर 2019 के संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली के 74वें सेशन दौरान इमरान खान और एर्दोआन की न्यूयार्क में हुई मुलाकातों के दौरान हुई थी। इससे पहले डेढ़ वर्ष तक अमेरिका ने पाकिस्तान को लगभग दुश्मन की तरह अलग-थलग कर दिया था। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के पाकिस्तान को उसकी औकात दिखाते और बेईमानी के लिए बुरी तरह हड़काते हुए ट्वीट्स भी उसी समय के हैं। प्रेजिडेंट ट्रम्प का 2019 के नए साल के पहले दिन का पहला जगप्रसिद्ध ट्वीट भी उसी की देन है। इस समय नवाज़ शरीफ की सरकार जा चुकी थी और इमरान खान को फ़ौज की कृपा ने सत्ता पर बैठा दिया था। लेकिन अमेरिकी डॉलर्स पर पल रही पाकिस्तानी फ़ौज और सरकार डॉलर बंद होने के बाद अंतिम हिचकियाँ लेने लगी थी। IMF के जरिये उधार डॉलर सहायता भी अमेरिकी प्रभाव पर निर्भर करती है इसलिए इमरान खान और क़मर बाजवा सऊदी अरब के प्रिंस मुम्मद बिन सलमान के सामने गिड़गिड़ा रहे थे कि किसी तरह ट्रम्प से इमरान खान और बाजवा की मुलाकात करवा दें। 

समझा जाता है कि प्रशासनिक स्तर पर तो नहीं लेकिन अपने मित्र जेरेद कुशनर, जो अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के दामाद हैं, के जरिये प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान ने इमरान बाजवा का अमेरिकी दौरा तय करवाया था।  क्योंकि इसी समय अपने चुनावी प्रचार से पहले ट्रंप अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजें लौटा लेना चाहते थे और पाकिस्तान तालिबानियों पर अपने प्रभाव का प्रयोग कर तालिबान को अमेरिका के साथ वार्ता के लिए तैयार कर सकता था। (हुआ भी यही) | ट्रंप से मुलाकात के बाद अंतर्राष्ट्रीय डिप्लोमेसी न समझने वाले इमरान खान इस अमेरिकी यात्रा से इतने उत्साहित हो गए थे कि वो अपने को क्षेत्र की महत्वपूर्ण शक्ति समझ बैठे। इमरान खान और बाजवा भूल गए कि जो काम पाकिस्तान को कहा जा रहा था वह काम पाकिस्तान के कान उमेठ कर भी करवाया जा सकता था। UNGA सत्र से पहले इमरान खान सऊदी अरब गए प्रिंस सलमान ने ही भिखारी देश के प्रधानमंत्री को अमेरिका जाने के लिए अपना हवाईजहाज दिया था। 

जैसा कि उनसे अपेक्षित था इमरान खान न्यूयार्क में अपने, सऊदी अरब के और अमेरिकी हितों पर फोकस करने की बजाय अपनी भारत से नफरत की मानसिकता को पोषित करने में लगे रहे। इमरान खान ने सऊदी अरब से कोल्ड वॉर में मुब्तिला टर्की और सऊदी अरब के दुश्मन मुल्क ईरान से गठजोड़ किया साथ में मलेशिया को मिलाया और सऊदी अरब का इस्लामी उम्मा पर प्रभाव कम करने के लिए एक नए मुस्लिम ब्लॉक की नींव डालने की योजना बना ली। प्रेस कांफ्रेंस में इसके अगले कार्यक्रम की घोषणा भी कर डाली और मलेशिया के कुआलालम्पुर में एक अलग मुस्लिम सम्मिट की घोषणा भी कर दी। इस हरकत ने प्रिंस सलमान को इतना नाराज कर दिया कि न्यूयार्क से लौटते समय उड़ते प्लेन को वापस बुला कर इमरान खान क़मर बाजवा और उनके साथियों को हवाईजाहज से उतार दिया गया। यहाँ यह बता देना भी रोचक है कि जब इमरान खान के कहे पर कुआलालम्पुर में दिसंबर 2019 में जब यह सम्मेलन हुआ तब इमरान खान सऊदी अरब से हड़काये जाने के कारण नहीं गए और फिर 4 फरवरी को मलेशिया जाकर यह कह दिया कि मैं दोस्तों के दबाव वजह से तब नहीं आ सका। मान लेना चाहिए कि इमरान खान ने अपने लिए मुसीबतें बढ़ा ली हैं। 

जहाँ तक टर्की का प्रश्न है तो एर्दोआन सऊदी अरब को हटा कर मुसलमानों का मुख़्तार बनाने के लिये सऊदी अरब से कोल्ड वॉर में मुब्तिला है। टर्की में सत्ता में आने के बाद से एर्दोआन ने डेमोक्रेसी के स्थान पर इस्लामीकरण को अपना लक्ष्य बनाया। दरअसल एर्दोआन स्वयं को इस्लामी उम्मा का नया ख़लीफ़ा बनाने का ख्वाब पाले हुए हैं और इसके लिए वह सऊदी अरब को इस्लामी देशों के सरताज के स्थान से हटा देना चाहते हैं। एर्दोआन अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए इतना आगे जा चुके हैं कि प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान को इस्तांबुल में साउदी दूतावास में हुए पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या में फँसाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करने और फँसाने के लिए अत्यधिक प्रयास किये। दूसरी ओर क़तर द्वारा मुस्लिम उम्मा के आतंकवादियों को समर्थन देने के कारण सऊदी अरब द्वारा क़तर पर सैंक्शंस लगाने पर टर्की क़तर के साथ आ खड़ा हुआ। दरअसल एर्दोआन टर्की, सीरिया, इराक़, ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, यहाँ तक कि ओमान और यमन तक भी अपनी ख़िलाफ़त के वर्चस्व का नक्शा खींच देना चाहते हैं। इसमें एर्दोआन की नजर कुछ अन्य मुस्लिम देशों पर भी है। 

प्रश्न उठता है कि विश्व भर में आइसोलेटेड 'मंगता'  पाकिस्तान टर्की को क्या दे सकता है जो टर्की उसको समर्थन देने में इतना आगे जा रहा है कि भारत से दुश्मनी करने लगा है ? इसका पहला कारण लगता है कि इस्लामी ख़लीफ़ा बनने को आतुर एर्दोआन के दिमाग में कहीं न कहीं पाकिस्तान से अनैतिक तरिके से चुपचाप न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी लेने का विचार पनप रहा हो सकता है। दूसरे टर्की की नजर मिनरल रिच बलोचिस्तान की माइन्स पर भी है। यहाँ यद्यपि चीन की बलोचिस्तान में इसी आशय से उपस्थिति टर्की के अरमानों पर प्रश्नचिन्ह है। तीसरे टर्की और विशेषकर एर्दोआन ने मान लिया है कि इस्लामी जगत का सऊदी ब्लॉक भारत का मित्र है जो कि सच्चाई भी है। इसलिए इस्लाम का मसीहा बनने को उत्सुक टर्की पाकिस्तान का मित्र और भारत का शत्रु जैसा व्यवहार अपना चुका है। 

अब प्रश्न यह भी उठता है कि पाकिस्तान टर्की से क्यों इतना बगलगीर हो रहा है ? पहला कारण तो वही कि अपनी आतंकवादी मैन्युफैक्चरर एंड एक्सपोर्टर गतिविधियों के कारण पाकिस्तान विश्व समुदाय में अलग-थलग पड़ चुका दुष्ट देश समझा जाता है। टर्की मलेशिया चीन ईरान के अलावा कोई देश पाकिस्तान को न अहमियत देता है न पाकिस्तान की बात सुनता है। दूसरे दुनिया में भिखारी देश की हैसियत दुनिया की जरूरतों के हिसाब से तय होती है और पाकिस्तान की हैसियत अमेरिकी रुसी और चीनी जरूरतों के अनुसार ही निर्धारित होती है। फ़िलहाल इनमें से किसी भी देश को पाकिस्तान से कोई लाभ नहीं पहुँच रहा है या बहुत कम है। मुफ़्त में डॉलर सिर्फ अमेरिका से आते थे जो ट्रंप ने बंद कर दिए। CPEC की आड़ में बलोचिस्तान और अन्य हिस्सों को चीन को बेचने का जो काम पाकिस्तान ने शुरू किया था वह अमेरिका ने रुकवा दिया है। थोड़ा बहुत पैसा सऊदी अरब और यूएई से तेल या अन्य वस्तुओं के रूप में मिल जाता है लेकिन लगता है अब उनके दुश्मन टर्की से हाथ मिला कर पाकिस्तान ने उनको भी नाराज कर दिया है। अब पाकिस्तान एर्दोआन की महत्वाकांक्षाओं से कुछ डॉलर इकट्ठे करने की जुगत में है, हालाँकि टर्की की खुद की वर्तमान आर्थिक स्थिति फ़िलहाल पहले जितनी मजबूत नहीं है। 

पाकिस्तान की बेतुकी विदेश नीति और अजब गजब डिप्लोमेसी के पूंछ और सींग ऐसे गड्डमड्ड हुए हैं कि पाकिस्तानी डिप्लोमेसी जब मुँह दिखाती है तो पता चलना मुश्किल है कि डॉलर खाने वाली है या आतंक का गोबर करेगी। फिर भी ऐसी स्थिति में पाकिस्तान का कश्मीर ऑब्सेशन समझना मुश्किल नहीं है। पहली वजह तो राजनैतिक और सैनिक है। पाकिस्तान की फ़ौज को अपनी जनता को कश्मीर के नाम पर सपने बेचते सात दशक हो चुके हैं। जनता के दिमाग में बैठा दिया गया है कि बिना फ़ौज के पाकिस्तान खत्म है। दूसरे कश्मीर पाकिस्तानी जनता के दिमाग में मजहब की तरह भर दिया है। पाकिस्तान की ISI को कहीं न कहीं विश्वास है कि भारत में ISI की पसंद की सरकार आ गयी तो हारा हुआ कश्मीर जीता जा सकता है। क्योंकि भारत में पाकिस्तान समर्थक राजनितिक दल हैं, नेता हैं, कानून वाले हैं, सामाजिक कार्यकर्ता हैं, पत्रकार हैं, कुछ ब्यूरोक्रेट्स हैं, अभिजात्य वर्ग है और एक बड़ी भीड़ है जिसके दम पर मुस्लिम हितों के पोषण के नाम पर पाकिस्तान के हितों का पोषण संभव है (हास्यास्पद बात यह है कि ऐसे ही हजारों लोग एर्दोआन ने टर्की की जेलों में ठूंसे हुए हैं) । यही विश्वास पाकिस्तान एर्दोआन को दिलाने में सफल रहा है। कांग्रेस के नेता पाकिस्तान के दौरे तो करते ही रहते हैं अब टर्की में भी कांग्रेस पार्टी का ऑफिस खुल गया है जबकि टर्की में तो कोई बड़ा इंडियन डायस्पोरा भी नहीं है। वर्तमान हालात में भारत सरकार की विदेश नीति तो कारगर रही है आंतरिक सुरक्षा नीति पर सक्रियता से काम की  जरूरत है । जहाँ तक मैं समझता हूँ टर्की पाकिस्तान मलेशिया छाप डिप्लोमेसी फिजूल की कसरत है। 

Thursday 13 February 2020

दिल्ली चुनाव : मेरा नजरिया

                                                    


महीने भर की वैचारिक जद्दोजहद के बाद दिल्ली चुनाव खत्म हुए जनता ने केजरीवाल को एक बार फिर न सिर्फ सत्तासीन किया बल्कि उनके भारतीय राजनिति में अस्तित्व पर मुहर भी लगा दी, अब मान लेना चाहिए कि आने वाले दशकों में केजरीवाल भारतीय राजनीती में न सिर्फ मौजूद रहने वाले हैं बल्कि दिल्ली की राजनीति का प्रमुख खिलाड़ी भी रहने वाले हैं। अब भविष्य में यह खिलाड़ी कितना खेलता हुआ पाया जायेगा कितना हिट विकेट होगा यह तो आने वाले समय में केजरीवाल की महत्वाकांक्षा और दिल्ली की जनता के बीच ही तय होगा। 

दिल्ली में केजरीवाल की जीत के क्या कारण रहे इस पर हर दृष्टिकोण से व्यापक चर्चा हो चुकी है। कुछ सही कुछ अनावश्यक कारणों पर कहीं सही कहीं अनावश्यक बारीकी से चर्चा हुई जिसमें भारीतय लोकतंत्र के मूल पैटर्न को नहीं छुआ गया वोटर की मानसिकता को समझने का प्रयास नहीं किया गया। सबसे ज्यादा दिल्ली के वोटर पर मुफ्तखोर असंवेंदनशील लालची होने का आरोप लगा। मेरी नजर में ऐसा आरोप लगा देना उचित नहीं है। हाँ दिल्ली का वोटर गैरजिम्मेदार और राष्ट्रीय मुद्दों पर असंवेदनशील हो सकता है बहुत ज्यादा अनरिज़नेबली डिमांडिंग और कर्त्तव्यों के प्रति लापरवाह हो सकता है और है भी, अपनी औकात से जयादा कंज़म्प्शन की निहित इच्छा रखता हो सकता है, लेकिन मुफ्तखोर और लालची का आरोप सही नहीं है। यदि दिल्ली के वोटर में यह आदत है तो यह आदत तो समूचे भारत के वोटर में है, बल्कि मैं तो कहूंगा कि एक वोटर के रूप में भारतीय मतदाता के बहुत बड़े वर्ग का मूल चरित्र ही मुफ्तखोरी है और यह मुफ्तखोरी सभी भारतीय राजनितिक दलों की देन है इसलिए दिल्ली के मतदाता पर यह आरोप लगाना उचित नहीं। 

लोकतंत्र में चुनाव राजनितिक राष्ट्रीय सुरक्षा आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर होते हैं। यह भारतीय लोकतंत्र की विडंबना है कि भारतीय राजनीतिज्ञों ने इस स्वरूप को इतना भोंथरा बना दिया है कि जनता ही किसी लालची याचक सी खड़ी नजर आती है। दिल्ली में 2019 लोकसभा के आम चुनाव राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर हुए थे क्योंकि तब दिल्ली की जनता को बिलकुल सामने एक खतरा एक नेता और एक दुश्मन नजर आ रहा था इसलिए दिल्ली ने सभी सातों सीटें नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा भाजपा को दी थीं। आज भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति जनता में वही विश्वास है कि यह नेता हमें हर खतरे से बचा लेगा इसलिए आज भी आम चुनाव हो जाएँ तो वोट मोदी को ही जायेगा लेकिन यहाँ परेशानी यह है कि जनता नहीं समझती कि एक दुश्मन है जो बराबर भारत को हजार जख्म देने के प्रयास में लगा हुआ है और दे रहा है और इस दुश्मन को सपोर्ट भारत के अंदर से मिलती है। यह समर्थन कुछ भारतीय राजनीतक दलों से, विशेष प्रकार के अभिजात्य वर्ग से, जिसमें कुछ कानून वाले हैं, कुछ शिक्षक हैं, चार विश्वविद्यालयों के कुछ छात्र हैं, एक अवार्ड वापसी टाइप गैंग है, और इनके पास एक भीड़ है जिसके कठमुल्ले लीडर हैं, और ये लोग पाकिस्तान और अन्य भारत विरोधी शक्तियों द्वारा संचालित निर्देशित और पोषित होते हैं। 

भारतीय जनता पार्टी यह बात गंभीरता से जनता को समझाने में असफ़ल रही है, बावजूद शाहीन बाग़ जैसी घटना सामने होने के असफल रही है क्योंकि भाजपा के दूसरी पंक्ति के अधिकांश नेता आलसी हैं छुटभैय्ये नेता बककड़ हैं और मिडिया और सोशल मीडिया सेल अभद्र आक्रामक नासमझ अदूरदर्शी लोगों से भरी पड़ी है जो नेतृत्व और दिशा देने के काम कर ही नहीं सकते। भाजपा की इसी कमी का केजरीवाल पार्टी ने न सिर्फ अवलोकन किया बल्कि इसी के बर अक्स अपनी चुनावी रणनीति भी तैयार की और उस पर काम किया। केजरीवाल ने यह भी भांप लिया था कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर वो मोदी का मुकाबला कर ही नहीं सकते बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा पर षड्यंत्रकारी गलतबयानी कर केजरीवाल ने अपनी साख़ पहले ही खत्म कर ली थी इसलिए केजरीवाल ने न राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा छेड़ा न ही राष्ट्रीय सुरक्षा के विश्वास बन चुके मोदी को ही छेड़ा। यहाँ तक कि विरोधियों के षड्यंत्रों से चल रहे शाहीन बाग़ धरने के आसपास भी नहीं फटके। 

केजरीवाल ने महसूस कर लिया था कि मोदी सरकार की आर्थिक नीतियाँ आम जनता को एक वर्ग के रूप में किसी तरह की राहत देने वाली नीतियाँ नहीं हैं बल्कि कभी सड़क सुरक्षा के नाम पर मोटे जुर्माने वसूलने कभी नए टैक्स और सेस के जरिये कभी जीवन की सामान्य जरूरतों पर मूल्य बढ़ाने वाली हैं जिनसे आम जनता न सिर्फ अप्रसन्न है बल्कि एक वर्ग के रूप में किसी तरह निजात चाहती है वही केजरीवाल ने किया। जनता को 200 यूनिट तक बिजली फ्री करने बीस हजार लीटर पानी फ्री करने महिलाओं की बस यात्रा मुफ़्त करने के साथ ही शिक्षा व्यवस्था में पहले से बेहतरी करने स्कूलों की हालत ठीक करने और मोहल्ला क्लिनिक द्वारा मिल रहे लाभ को भी बहुत प्रचारित किया। क्योंकि इसमें कुछ काम तो हुए थे और जनता को सुविधा के साथ साथ जेब में बचत भी पहुँच रही है तो लगभग 54 प्रतिशत जनता ने अपनी जेब को अहमियत देते हुए भाजपा के मुकाबले केजरीवाल को चुना। झारखंड हारने के बाद दिल्ली में अपनी प्रभावी मौजूदगी दर्ज न करा पाना भाजपा की आर्थिक नीतियों की पराजय है। जनता के टैक्स के पैसे से जो विकास कार्य कोई सरकार करती है यानि स्वास्थ्य शिक्षा बिजली सड़क पानी वही तो केजरीवाल सरकार ने जनता की नजर में बिना कोई अतिरिक्त पैसा लिए शुरू कर दिए हैं, तो आगे केजरीवाल की विजय को एक मॉडल की तरह भी देखा जा सकता है। 

अब प्रश्न उठता है कि क्या केजरीवाल एक बार फिर स्वयं को राष्ट्रिय स्तर पर ले जाकर मोदी का प्रतिद्व्न्दी बनने का प्रयास करेंगे तो मुझे लगता है यदि जरा भी विवेक बुद्धि है तो केजरीवाल अगले पाँच साल यह प्रयास नहीं करेंगे क्योंकि 2015 के चुनाव में ऐसी ही विजय के बाद केजरीवाल मोदी को टककर देने के चक्कर में मुँह के बल ऐसे गिरे थे कि उसके बाद यह चुनाव जीतने तक केजरीवाल हर चुनाव हार चुके हैं यहाँ तक कि छह माह पहले उनके राजनितिक अस्तित्व पर ही बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया था। संभव है महत्वाकांक्षा विवेक पर हावी हो भी जाये और विपक्ष में बैठे उनके मित्र उन्हें उकसाएं भी तब भी राहुल गाँधी प्रियंका गाँधी मायावती शरद पवार क्या विपक्ष का सर्वमान्य नेता स्वीकार करेंगे ? मुलायमसिंह यादव अखिलेश यादव और लालू यादव के परिवार के नाम इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कि ये लोग सत्ता के समझौतों में कुछ भी स्वीकार कर सकते हैं। केजरीवाल का राष्ट्रीय पटल पर आविर्भाव तभी संभव है जब नेतृत्व विहीन कांग्रेस पार्टी केजरीवाल को अपना अध्यक्ष बना ले। 

कुछ समीक्षक प्रश्न उठा रहे हैं कि क्या केजरीवाल भाजपा की हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की राजनीती में सेंध लगा सकते हैं तो उस पर मेरा जवाब यही है कि बिलकुल भी नहीं। राष्ट्रवाद और हिंदुत्व पनपता है एक आदर्श विचारधारा के साये में जिसे नाटक से पोषित नहीं किया जा सकता और केजरीवाल की राजनीती महज नाटक की राजनीती रही है जिसमें ऐसी पवित्र विचारधारा के लिए कोई जगह नहीं। केजरीवाल की आर्थिक नीतियों का लाभ लेने वाली और उनको वोट देने वाली जनता भी जानती है राष्ट्रीय सुरक्षा राष्ट्रवाद या हिंदुत्व के लिए नाटकों पर विश्वास नहीं किया जाता। अगर केजरीवाल के पिछले काम देखें तो अपने पंख फ़ैलाने के लिए दिल्ली के बाद सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण बॉर्डर स्टेट्स गुजरात राजस्थान पंजाब को अपना कार्यक्षेत्र बनाने के लिए चुना, क्यों चुना ? खालिस्तानी समर्थकों से देश विदेश से पैसा लेने के आरोप, खालिस्तानी मूवमेंट के समर्थकों की सहायता से पंजाब का मुख्यमंत्री बनने के प्रयास का आरोप, JNU में जाकर टुकड़े टुकड़े गैंग का समर्थन करना टुकड़े टुकड़े गैंग पर मुकदमा चलाने की अनुमति न देना और अब शाहीन बाग में बग़ावत फ़ैलाने के लिए अपने मुसलमान नेता छोड़ देना,  यह सब यह बताने के लिए पर्याप्त है कि केजरीवाल न ही राष्ट्रवाद का सिपाही हो सकता है न हिंदुत्व का हामी। हाँ केजरीवाल धर्म से हिंदू नेता है जिसका प्रयोग उसने अब राजनीती के लिए भी करना शुरू किया है। 

भाजपा के हारने के कारण बहुत स्पष्ट हैं लेकिन भाजपा के सिवा यह सबको समझ आता है या फिर भाजपा और मोदी सरकार जानबूझ कर इन पर ध्यान नहीं देते। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी बहुत सी इनोवेटिव आर्थिक नीतियों टैक्स सेस डिजिटल पेमेंट और फाइव ट्रिलियन डॉलर इकोनोमी के ऑब्सेशन में यह भूल रहे हैं कि सुवधाएं और ईज़ ऑफ़ लिविंग लाइफ तो राष्ट्रवादियों को भी चाहिए हिंदुत्व के लिए भी जरूरी है। आमतौर पर राष्ट्रवादी भी एक सामान्य व्यक्ति है जो मेहनत कर के जैसे तैसे जीवन यापन कर रहा है। भले वह अपनी मेहनत से थोड़े बेहतर जीवन के लिए थोड़े साधन जुटा लेता है लेकिन आम राष्ट्रवादी को धन्ना सेठ नहीं है उसको भी राहत चाहिए जो सरकार न सिर्फ दे नहीं रही है बल्कि जीवनयापन को महंगा भी करती जा रही है। यही कारण है कि भाजपा एक के बाद एक उत्तर भारत में राज्यों से बाहर होती जा रही है। 

अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए भाजपा को राष्ट्रवाद को ईज़ ऑफ़ लिविंग लाइफ से जोड़ना होगा। वैसे भी मुफ्त की बहुत बड़ी बड़ी योजनाएं तो मोदी सरकार चला ही रही है उनमें पैसा गड्ढ़े में डालने की अपेक्षा कुछ ऐसी योजनाओं में डालना होगा जिनसे जनता को जाति वर्ग के अलावा एक आम आदमी की तरह कुछ प्राप्त हो। 
दूसरे भाजपा को हिंदुत्व को और अधिक असर्टिव करना होगा। यदि सभी विरोधियों सहित केजरीवाल को यह समझ आ सकता है कि हिदुत्व के बिना अब देश की राजनीती नहीं चल सकती तो इसके पीछे पहले से चलती आयी भाजपा की राजनीती है जिसे और आक्रामक करने की आवश्यकता है। बहुसंख्यक देशवासियों में यह विश्वास होना जरूरी है कि आजादी के बाद से ही देश और हिंदुओं को ब्लैकमेल करने वाले प्रेशर ग्रुप को अब सख्ती से कुचल दिया जायेगा। अशांति हिंसा और दंगा फ़ैलाने समूह को हमेशा के लिए दबा दिया जायेगा। मैसेज स्पष्ट करने के लिए सरकार लंबित पड़े कानून लाये जनसंख्या नियंत्रण पर नए सिरे से कानून लाये साथ ही अल्पसंख्यकों का आबादी में प्रतिशत निर्धरित हो। 

जहाँ तक कांग्रेस का प्रश्न है तो कांग्रेस जीतने के लिए चुनाव नहीं लड़ती ना इसके लिए कांग्रेस के पास न कोई नेता है न रणनीति न इच्छाशक्ति ही बची है। कांग्रेस का उद्देश्य महज इतना है कि किसी तरह भाजपा को सत्ता हासिल करने से रोक सके। लगता है धीरे धीरे इस काम की भी नहीं बचेगी। इसलिए कांग्रेस पार्टी के बारे में बात करना ही व्यर्थ है। हाँ केजरीवाल ऐसा नेता है जिसके पास राष्ट्रीय पार्टी नहीं है और कांग्रेस ऐसी पार्टी है जिसके पास नेता नहीं है अब ये दोनों एक दूसरे का पाणिग्रहण कर लें तब देखेंगे। 

Thursday 6 September 2018

भगवा की दरकती दीवार

वर्तमान राजनितिक घटनाक्रम से गुजरते पिछले दिनों से स्पष्ट दीखने लगा था कि आने वाले समय में मोदी सरकार के विरुद्ध देश भर में एक विशेष प्रकार के असंतोष का माहौल बनने जा रहा है जो प्रकृति में लगभग वही होगा जो 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' आंदोलन के समय कांग्रेस के नेतृत्व वाली 'यूपीए' सरकार के विरुद्ध बन गया था। इस तथ्य से समस्त मीडिया कितना अवगत था कह नहीं सकते लेकिन सोशल मीडिया पर प्रभंजन के रव को सहज महसूस किया जा सकता था किंतु सोशल मीडिया बहादुर भाजपा, अति आत्ममविश्वास की अफ़ीम के उनींदेपन में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के विरुद्ध पनप रहे असंतोष को पहचानने में असफल रही। परिणाम आज सामने आने लगा है।

सवर्णों का भारत बंद वर्तमान में भले SC/ST एक्ट के विरुद्ध एक सहज प्रतिक्रिया सा दीख पड़ता है लेकिन इसे यहीं तक समझना एक बड़ी भूल होगी। SC/ST एक्ट तो सुप्रीम कोर्ट का संशोधन करने वाला फैसला आने से पहले भी यही था फिर सवर्ण या ओबीसी वर्ग लगभग तीन दशकों से क्यों चुप बैठे थे क्यों इसके विरुद्ध कोई आंदोलन नहीं हो रहा था ? यह सच है कि SC/ST एक्ट का दुरूपयोग बहुत जबरदस्त तरीके से होता रहा था और इसके उपयोग को ही बंद करने की बात कह कर एक बार मुलायम सिंह उत्तरप्रदेश की सत्ता में आये थे और दूसरी बार बसपा सुप्रीमो मायावती ने मुख्यमंत्री बनने के बाद इसके दुरूपयोग को रोकने के लिए लिखित आदेश दिए थे लेकिन यह भी भी सच है कि इसका विरोध भारतीय राजनीती का मुख्य मुद्दा कभी नहीं बना।

दरअसल आज का जो सवर्ण विरोध दीख रहा है वह मूलतः सवर्णों का दलित एक्ट विरोध न होकर वह जनअसंतोष है जो मोदी सरकार के विरोध में पिछले समय आम जनता या जिसे हम मध्यम वर्ग के नाम से जानते हैं, में पनप रहा है। और यह विरोध उसी वर्ग का असंतोष है जिसने बड़े उत्साह और अरमानों से नरेंद्र मोदी को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में सत्तारूढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसमें सवर्ण हैं पिछड़ा वर्ग है राष्ट्रवादी हैं हिंदुत्ववादी हैं। आज यही वर्ग भाजपा सरकार द्वारा खुद को ठगा गया महसूस कर रहा है।

भाजपा को प्रचंड बहुमत देकर सरकार में लाने वाले इस वर्ग ने जिन मुद्दों पर वोट दिया था वह मुद्दे थे ; राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, पेट्रोल डीज़ल की बढ़ती कीमतें, महंगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीती से मुक्ति, कश्मीर समस्या का समाधान, धारा 370 का खात्मा, रोज भारतीय सैनिकों की लाशें भेज रहे पाकिस्तान का स्थायी इलाज, कॉमन सिविल कोड, राम मंदिर का निर्माण। ये सब वही मुद्दे हैं जो हमेशा भाजपा के भी मुद्दे रहे हैं। इन्हीं मुद्दों पर विजय पाने के लिए जनता ने अभूतपूर्व उत्साह से 30 साल बाद पूर्ण बहुमत की समर्थ सरकार को गद्दीनशीन किया था। सरकार के प्रारम्भिक डेढ़ दो वर्ष में इनमें से कुछ मुद्दों पर कुछ काम होता लगा भी किंतु अंततः वह सब कहीं पहुँचता नहीं दिखा बल्कि जनता इन मुद्दों पर सरकार की न समझ आने वाली नीतियों पर असमंजस में नजर आने लगी।

हुआ यह कि राष्ट्रवाद ट्विटर, फेसबुक की मीडिया सेल और अंधभक्तों का मसला बनकर रह गया जिन्होंने उसे  गालियों का राष्ट्रवाद बना दिया, कच्चे तेल की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक तिहाई रह जाने के बावजूद आम जनता को एक पैसे की राहत न दी गयी, भ्रष्टाचार सरकार के स्तर पर खत्म हुआ लेकिन सरकारी अधिकारी कर्मचारियों के स्तर पर कोई फर्क नहीं पड़ा, आतंकवाद उरी से पठानकोट तक सैन्य लाइन्स में जा घुसा जहाँ सैनिकों की शहादतें होती रहीं, कश्मीर में तो आतंकवाद की हमदर्द मुफ़्ती महबूबा के साथ भाजपा उस सत्ता का सुख लेने में लग गयी जो देश को खोखला कर रही थी आतंक के साये में रोज सैनिकों/सुरक्षा बलों की लाशें उठा रही थी और जनता के रोष, आक्रोश के बावजूद तीन साल इस सत्ता सुख पर काबिज रही। धारा 370 तो खैर क्या हटाते उलटे इनकी मुख्यमंत्री 35 A जैसे असंवैधानिक आर्टिकिल पर भारतीय राष्ट्र को धमकाती रही कि कश्मीर में तिरंगे को कंधा देने वाला नहीं मिलेगा।

उधर पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक का अगर कोई असर पड़ सकता था तो उसे केजरीवाल और कांग्रेस के नेताओं ने 'फर्जीकल स्ट्राइक' कह कर, सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठा कर न्यूट्रेलाईज़ कर दिया और पाकिस्तान को मौका दे दिया कि वह पहले की तरह अपने नापाक मंसूबों को परवान चढ़ाता रहे।

मुस्लिम तुष्टिकरण से मुक्ति दिलाने आये साहब लोग कुछ समय तो चुप रहे और इस चुप्पी का ही असर था कि खुद मुसलमान उलेमा आतंकवादियों के विरुद्ध फतवे देते नजर आये, लेकिन उसके बाद हुआ यह कि खुद प्रधानमंत्री मुहम्मद साहब की अर्चना और कुरान की बातों में लग गए इतना ही नहीं बल्कि संघ, जिससे कभी तुष्टिकरण की राजनीती पर सहानुभूति दिखाने की अपेक्षा कर ही नहीं सकते थे वह भी सरयू के किनारे नमाज पढ़ाने की योजना बनाने लगा। वह तो संत समाज का तीखा विरोध था जो 'संघ नमाज योजना' परवान न चढ़ सकी।  इस नव तुष्टिकरण का सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि अतिवादी मुसलमान मुफ़्ती मौलाना भारत के और टुकड़े करने, एक और अलग मुस्लिम देश की मांग करने लगे। अधिक कष्ट की बात ये है कि ऐसा सिर्फ कश्मीर में नहीं आपके टीवी चैनलों की डेली डिबेट्स में भी होने लगा।

राम मंदिर बनाने की बात तो खैर भूल ही जाइये वह तो अदालत के निर्णय के नाम पर पड़ा रहेगा और अदालत तो लगता नहीं हमारे जीवनकाल में कोई फ़ैसला देगी। कॉमन सिविल कोड के बारे में तो लॉ कमीशन को ही लगने लगा है कि इसकी कोई जरूरत नहीं। हालाँकि भाजपा सरकार मुस्लिम महिलाओं को 'न्याय दिलाने' की टीवी डिबेट्स में अति उत्साहित लगती है। अब इन मुद्दों के साथ हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, देशभक्ति, राम मंदिर जैसे  अन्य मुद्दों पर भाजपा को सत्ता में लाया साधारण वर्ग का आम आदमी सोच रहा है कि जिन कारणों से मैं इस सरकार को लाया उनका क्या हुआ ? आम देशवासी का सोचना है कि अभी तक साबित व्यर्थ की नोटबंदी और कष्टकारी जीएसटी को सहन कर मैंने जो देश भर में भगवा लहरा दिया था उस से मुझे क्या हासिल हुआ ?

अब आकर तो जनसाधारण को इस सरकार की उसको कुछ न देने की नीयत पर ही शक़ होने लगा है। उज्ज्वला योजना, 18000 गांवों की बिजली 6 करोड़ शौचालयों से, आम शहरी मध्यम वर्ग जो अधिकांशतः सवर्ण तथा सो काल्ड पिछड़े वर्गों से बनता है, उसको क्या हासिल हुआ ? यहाँ आकर भाजपा सरकार पूरी तरह विफ़ल हुई और बजाय इस वर्ग के असंतोष को दूर करने के प्रवक्ताओं के टीवी डिबेट्स के सहारे चुनाव जीतने के मंसूबे बांधे बैठी है। 2014 में समस्त जातियों को एकत्र कर हिंदुत्व के एक सूत्र में पिरोने वाली भाजपा जातियों की माइक्रो इंजीनियरिंग में इस कदर मुब्तिला हो गयी कि हिंदुओं को फिर से जातियों में बाँट दिया। यह भाजपा की भयानक भूल रही जो अतरिक्त चतुराई में की गयी लगती है।

हिंदुओं के एकीकरण से भारत का जो नक्शा भगवा होता चला जा रहा था उसको जातियों में बाँटकर और वर्गों में वंचना का भाव पैदा कर भाजपा सरकार ने ही भगवा किले की दीवार को दरका दिया है। चार सालों से दलित शोषित पीड़ित वंचित किसान सुनता मध्यम वर्ग असंतुष्ट है क्योंकि महसूस करने लगा है कि इस जुमलेबाजी में मैं कहाँ हूँ। यह वह असंतोष है जिसमें संसद में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदलने की कार्यवही ने चिंगारी दिखा कर विस्फोट करा दिया है। अब इस सरकार विरोधी सामाजिक उथलपुथल और आंदोलित मानस का लाभ लेने विपक्षी दल भी मैदान में उतर आये हैं जो भले अपने पक्ष में माहौल न बना पायें लेकिन भाजपा की भगवा किले की दीवार कमजोर कर ही देंगे। कुछ हिंदुत्ववादी  तो कहने भी लगे हैं कि 2019 में यदि दो ढाई साल के लिए कमजोर सरकार आ भी गयी तो कोई मुस्लिम राष्ट्र तो घोषित कर नहीं देगी। ढाई वर्षों में फिर सरकार बदल देंगे लेकिन इनकी राजनीती ठीक करना जरूरी हो गया है।

अगले माह अन्ना हजारे आरक्षण विरोधी आंदोलन लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान में बैठने वाले हैं। भले अन्ना हजारे से सहानुभूति न हो लेकिन अपने सरोकारों के चलते सामान्य मध्यम वर्ग और पिछड़ा वर्ग भी उस आंदोलन में भाग लेगा इसी तरह मजदूरों का भी आंदोलन अगले माह है। कुछ अन्य दलों के छोटे बड़े अनेक राजनीतिक आंदोलन इसी का लाभ लेकर शुरू कर दिए जाने की अपेक्षा की जा सकती है। स्पष्ट नजर आ रहा है कि भाजपा आने वाले समय में उसी स्थिति से दो चार होने वाली है जो यूपीए सरकार ने अपने अंतिम वर्ष में देखी थी। लेकिन आम आदमी को कुछ न देने की नीयत के चलते भाजपा  वर्तमान स्थिति से जीत पाने में असमर्थ नजर आती है क्योंकि इतना समय निकाल दिया गया है कि अब इनकी जीतने की योग्यता पर ही संदेह होने लगा है। नवंबर में आने वाले विधानसभा चुनावों में भगवा नक्शे के बीचों बीच कमजोरी के कारण बड़े छेद होने की आशंका नजर आती है। 

Monday 15 January 2018

मन की बात

मन की बात

                 


                           तुम्हारे पांवों के नीचे कोई जमीन नहीं 


ठहरते चलते  समय के साथ जाने कितना ठहरते जाने कितना चलते हम इतने सामाजिक तो हो गये हैं कि व्यक्ति को उसकी पीड़ा और निराशाओं के बीच घुटता हुआ छोड़ दिया है, मौन और अकेला। वही व्यक्ति जो जन्म से ही हमारे भीतर था जो हमारे साथ बड़ा हुआ जो स्वप्नदृष्टा था, रूमानी था जीवित भी था, तब तक जब तक कि हम दुनियादार नहीं हो गए। अब वही व्यक्ति भीतर ही भीतर तड़पता है चीखता है चुनौती देता है लेकिन हम मौन हैं, खुश हैं क्योंकि हम प्रतिक्रिया नहीं करते हमारी अभिव्यक्ति रुंध गयी है। दरअसल दुनियादार आदमी अभिव्यक्ति, रुमानियत और व्यक्तित्व के अंत का कब्रिस्तान है जहाँ सारी कब्रें सीमेंटेड हैं सभी एकरंग पुती हुई जिसके अभिशाप में व्यक्ति की अभिव्यक्ति और प्रतिक्रियाएं एकरस हैं। 


लोग अपने कष्टों कुंठाओं और निराशाओं को व्यक्त नहीं करते अभावों को भी नहीं भावों को भी नहीं। स्थिर सुख के नपे तुले भावों के साथ हर चेहरा नयी सभ्यता का अनजान वाहक बना नजर आता है जिसके पास पाने के लिए पूरा बाजारवाद है और खोने के लिए एक व्यक्ति ही था जिसे वह पहले ही दफ़ना आया है बिना इस बात की परवाह किये कि वह जीवित था या मृत। वह इस बात से भी चिंतित नहीं है कि कहीं भविष्य में उसके भीतर दफ़्न यही आदमी कभी बाहर निकल आया तो कैसे हैंडल करेंगे ? क्या फिर एक हत्या होगी ? दुनियादार आदमी इस भ्रम को आत्मसात कर चुका है कि वह बाहर भीतर का भेद मिटा चुका है। अपनी प्रतिक्रिया के लिए वह बाजार की ओर झांकता है जहाँ कोई बाजारू खबरिया चैनल उसकी प्रतिक्रिया को निर्देशित और नियंत्रित करता है जो मीडिया ब जाते खुद दुनिया के किसी कोने में बैठे किसी बड़े कॉर्पोरेट हॉउस से निर्देशित और नियंत्रित है। 


अब प्रतिक्रिया समाज के कोढ़ बाबाओं की बड़ी गाड़ियों विलासितापूर्ण रहन सहन भव्य महलों और महलों सी ही सजीधजी रूपवान चेलियों के लावण्य और उनके बाबाओं से अंतरंग फंतासी प्रधान संबंधों पर होती है। प्रतिक्रिया मनोरंजन बन चुकी है, अभिव्यक्ति भी। हम संवेदनाओं और ऐहसास के लिये बाजार पर निर्भर हैं चिंताओं और चिंतन के लिये भी। कॉर्पोरेट को मुनाफ़ा देने वाले प्रमुख विषय, प्रमुख चिंताओं का विषय बन गए हैं जिनके सच और झूठ दोनों के बीच पैसों का बड़ा ढेर है जो न झूठ को छिपने देता है न सच को बाहर आने देता है इन्हीं सबके बीच हम पढ़ते सुनते हैं ग्लोबल वार्मिंग और आइस ऐज, इन्हीं के बीच हमारी चिंताएं बाघों की संख्या और उनके बचाव संवर्धन पर जा टिकती है फिर हमें बताया जाता है पर्यावरण और हम मनोरंजन की तरह चिंता करते हैं।

बदलाव के दौर में बाजार नियंत्रित चिंता और चिंतन मनोरंजन बन गया है जिसे ड्रॉइंगरूम या बेडरूम में हम अपनी ग्राह्यता के हिसाब से पचा रहे हैं। यानि अब हम महज एक कूड़ादान होकर रह गए हैं जिसमें बाजार हमारी ग्राह्य शक्ति के अनुसार अपनी इच्छा की वस्तुएं, विचार, क्रिया, प्रितिक्रिया, संवेदनशीलता, भाव और अभिव्यक्ति भी डालता जाता है। आपको गलतफ़हमी हो सकती है कि मैं बाजारवाद का विरोध कर रहा हूँ किंतु यह सच नहीं है। दरअसल तो मैं व्यक्तियों में से खो चुके व्यक्तित्व और आदमी के अंदर लुप्त हो गए आदमी पर हैरान हूँ। जहां समाज एकरस है, ऐहसास अभिव्यक्ति एकरस हैं सबकुछ "कंट्रोल्ड बाई अदर्स है"  व्यक्ति के नपे तुले ऐहसास नपी तुली संवेदनाएं नपी तुली खुशियाँ और नपे तुले ग़म बाहर आ रहे हैं। इस सबके बीच सबसे अधिक अभिव्यक्ति की एकरसता सालती है। सभी एक सा ही कैसे महसूस कर सकते हैं एक सा ही कैसे लिख सकते हैं लेकिन एक सा ही महसूस किया जा रहा है लिखा भी जा रहा है। एक ही जैसा से मेरा अर्थ यहाँ कॉपी पेस्ट से नहीं है बल्कि उन सीमाओं से है जिनमें अभिव्यक्ति बंध गयी है। 


इसी माह के प्रथम सप्ताह अपने वरिष्ठ कवि मित्र से बंधी हुई अभिव्यक्तियों के खालीपन पर चर्चा के दौरान उन्होंने कहा था लोग कुंठित हैं निराश हैं। मेरा प्रतिवाद था कि यदि कुंठित या निराश होते अवश्य कुछ मौलिक कुछ नया लिखते। दरअसल तो न इन्हें कोई पीड़ा है न निराशा न कुंठा ही है क्योंकि यदि ऐसा होता तो ये मौलिक आंदोलित करने वाला दिल दिमाग़ के किसी कोने में कुछ ठहरता सा लिखते। वो कहना चाहते थे वास्तविकता की कुंठाओं ने छोटे शहरों में लेखन को जकड़ लिया है। मेरा आक्रोश लेखन में अभिव्यक्ति को मनोरंजन बना लेने से था जबकि छोटे शहरों में विलुप्त होती जा रही लेखन की ईमानदारी पर हम दोनों सहमत थे। आज मौलिक ईमानदार लेखन बड़े शहरों तक सीमित होकर रह गया है चाहे वे स्टेट मेट्रो सिटीज़ हों या नेशनल मेट्रो सिटीज़ हों, सुविधाओं और उपलब्धताओं के चलते सभी लेखन जिसे लेखन कहा जा सके मैट्रोज़ की संपदा बन चुका है। एक तो इसलिए कि वहाँ बड़े छापेखानों के चलते तमाम बड़े लेखक कवि पत्रकार आजादी के बाद से ही नए रास्ते खोल चुके थे स्थापित हो चुके थे दूसरे इन बड़े लेखकों के बाद संपादकों और प्रकाशकों ने अन्य लेखक बना दिए जो आज मौलिक ईमानदार लेखक न सही नामचीन स्थापित लेखक तो हैं। 


स्थापित लेखक जब जीवकोपार्जन के लिये मेट्रो सिटीज़ में आये तो अपने चिंतन में ग्रामीण जीवन और संस्कृति भी ले आये जिसे उन्होंने कागज़ों पर उकेरा क्योंकि यह सबकुछ वही था जो उन्होंने जिया था अनुभव किया था, उनका चिंतन और लेखन व्यक्ति की समस्याओं के प्रति ईमानदार रहा, समाज को झकझोरता रहा। लेखन की यह ईमानदारी तब भी रही जब उन्होंने मेट्रो सिटी के अर्बनाइज़्ड जीवन और उसमें अपने घुलमिल जाने के बीच आयी समस्याओं और जीवन की वसिंगतियों विद्रूपताओं को दर्पण दिखाया। छोटे शहरों में सब्जेक्ट की इन  सुविधाओं का अभाव  झलकता है, ईमानदारी का भी। क्योंकि इन शहरों में ग्रामीण और शहरी जीवन घुलमिल गए हैं जहां मेट्रो सिटीज़ जैसी चंद सुविधाओं और बहुत सी अलामतों के बीच जीवन गड्ड मड्ड हो चला है। इन सबके बीच लेखक या कवि सब्जेक्ट के आभाव से जूझ रहा है, यह अभाव तब और मुखर हो जाता है जब इन शहरों का लेखक गांवों से जुड़ा नहीं होता। नतीजतन वह लेखन की अपेक्षा कविताओं को तरजीह देने लगता है। त्रासदी यह है कि कविताओं में संदेश एवं अभिव्यक्ति की ईमनदारी का न उसे ऐहसास है न उसके प्रति कोई रूचि। 

कवियों ने अपनी रूचि और सुविधानुसार बनावटी शैली पकड़ ली है जिसमें सब्जेक्ट नहीं होता अभिव्यक्ति भी नहीं, बस दीख पड़ता है तो सुंदर आडंबरपूर्ण शब्दों का सुगठित विन्यास जो न समाज के किसी पक्ष से जुड़ा है न व्यक्तिगत अनुभवों, एहसासों, प्रतिक्रियाओं को ही अभिव्यक्त करता है जिसके चलते कविता बाँझ हो गयी है। वोकैबुलरी सीमित है और अभिव्यक्ति स्वयं के लिए भी ढाई घंटे की फिल्म सा मनोरंजन है। सोशल मीडिया ऐसे कवियों से भरा पड़ा है कुछ तो एक दिन में दस बीस तक कविताएं लिख रहे हैं जबकि उन्होंने पूरे जीवन दस कवि भी नहीं पढ़े होंगे। इन सबके बीच अपवाद स्वरूप जो लेखक कवि निकल रहे हैं वो राष्ट्रिय स्तर पर भी नजर आते ही हैं। दूसरी ओर लेखकों की गिरती संख्या ने पत्र पत्रिकाओं को भी प्रभावित किया है।

प्रेम और प्रणय भी सामाजिक मानदंडों के अनुरूप परिपक्व हो गए हैं। अब ब्रेकअप होने पर व्यक्ति द्वारा पहले सी रुमानियत वाला हो हल्ला नहीं होता प्रेम में होने वाली आत्महत्याओं की जगह एकतरफा प्रेम में होने वाली हत्याओं या ऑनर किलिंग ने ले ली है लिव इन रिलेशनशिप प्रेम विवाह का विकल्प बनकर उभरी है। संवेदनाएं वक़्ती हैं और बेहिस भी। अस्पतालों में मरीजों के उकताए हुए तीमारदार दूसरे मरीजों को देखकर कुछ क्षण मनोरंजन रूपी संवेदनाएं व्यक्त करते हैं फिर मोबाइल फोन में सोशल मीडिया पर व्यस्त हो जाते हैं। इंटरनेट क्रांति और मोबाइल क्रांति के कारण दुनिया के छोटे होने ने लोगों को छोटा बहुत छोटा कर दिया है। संक्रमण काल में समाज और व्यक्ति के बाहर भीतर का अंतर सच में बौना हो चला है।  ऐसे में किस जगह किस बदलाव से कितनी सकारात्मकता की अपेक्षा की जाये इसे भविष्य पर छोड़ते हुए फ़िलहाल दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल के एक शेर से अंत करूंगा :

                                                  तुम्हारे पांवों के नीचे कोई जमीन नहीं 
                                                  कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं 


                                                                                                                 "फ़तेह"

Saturday 13 January 2018

प्रेस कांफ्रेंस

                                               हास्य कविता 



मुझको भी नेता बनवा दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 
गद्दी नंबर एक दिला दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 


चुप चुप रहते केजरीवाल मफलर हट गया खुले हैं बाल 
कुमार विश्वास लगावे जोर कपिल मिश्रा मचा रहा शोर 
गुप्ता को राजयसभा भिजवा दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 
कपिल - कुमार को चुप करवा दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 


भगवा ने किया है बुरा हाल दीदी डर गयी हँसे बंगाल 
ये कैसा हो गया फजीता पंडितों में बंट रही है गीता 
भाजपा की रफ्तार घटा दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 
शुरू फिर से इफ्तार करा दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 


अध्यक्ष हो गए राहुल भैया कांग्रेस की डूब रही  नैया 
मंदिर पूजा और जनेऊ फिर भी सत्ता हाथ न देहू 
मेरा कर्नाटक बचवा दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 
बहरीन से संदेसा भिजवा दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 


योगी जी ने डंडा उठाया उत्तर प्रदेश पकड़ में आया 
बहनजी अखिलेश  मचावें शोर ईवीएम वोटों की चोर 
ईवीएम को बंद करा दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 
बैलेट पेपर फिर चलवा दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 


मोदीजी भी  हैं परेशान जीत गए पर मिला न मान 
जीएसटी की मार देख ली ले के बैठ गया अरुण जेटली 
जेटली से पीछा छुड़वा दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 
कर्नाटक सरकार दिला दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 


खाली बैठे हो रहे बोर ट्विटर पे मिलते साँझ और भोर 
हमको भी कोई काम दिला दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 
कामचलाऊ पद दिलवा दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 
मेरी प्रेस कांफ्रेंस करवा दो वरना प्रेस कांफ्रेंस कर दूंगा 

Wednesday 10 January 2018

सच्ची बात सदुल्ला कहे सबके मन से उतरा रहे

                                               अच्छा है दिल के पास रहे पासबाने अक़्ल
                                               लेकिन कभी कभी इसे तनहा भी छोड़ दे

इस शेर ने इतना तो साबित कर दिया कि ग़ालिब हुजूर का पासबाने अक़्ल बड़ा जिम्मेदार और कर्तव्य परायण था जो हुजूर के अनुशासनहीन आवारा दिल को भी खेंच खांच कर ठिकाने बैठाने का प्रयास तो करता ही था। इसी से आजिज़ आ कर ग़ालिब साब अक़्ल के पासबान को हड़काने का प्रयास कर रहे थे। कह नहीं सकता ग़ालिब साहब इसमें सफल हुए या नहीं। इधर अपनी स्थिति उलट है। हमारी अक़्ल का पासबान कदरन आवारा और अनुशासनहीन है एक बार आवारगी को निकल गया तो मजाल है कहीं आसपास भी नजर आये। रह जाते हैं बेचारे हम और हमारा दिल। और फिर दोनों को, फ़िराक़ साहब की शैली में कहूं तो एक ही काम रह जाता है, मैं दिल को रो लूं हूँ और दिल मुझको रो लेवे है। इस रुदनबाजी से झुंझला कर दिल ही दूर-पास से ढूंढ ढांढ कर अक़्ल के पासबान को घेर-घोट कर पकड़ लाया हालाँकि अक़्ल की आदत जानने के कारण हम इसके पक्ष में नहीं थे।

                                           इस बार पासबाने अक़्ल ने आते ही सबसे पहले हमें घूरा फिर दिल को और एक तुरत प्रश्न जड़ दिया : "ये एक साल 2017 पूरा का पूरा छोड़ा था तुम्हारे पास तुम दोनों ने क्या किया इसका ?" इस तरह की जवाबदेही हमें पसंद तो नहीं लेकिन औचक हमले से हम डिफेंसिव हो गये। "क्या करना था इसका", मैंने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा। "कुछ भी करते" पासबाने अक़्ल अकड़ने लगा "क्या अचीवमेंट है बताओ ?"  क्योंकि अब तक हमने खुद को व्यवस्थित कर लिया था इसलिए पलट अकड़ में कहा : देख भाई इस साल का अचीवमेंट बस इतना है कि इस साल भी जीवित हूँ और तुम्हारा काम है दिल के पास रहने का तो वही करो। पासबाने अक़्ल थोड़ा गत में आया ढीला हुआ और कहने लगा वो जो पिछले साल की राजनितिक लफ्फाजी चल रही थी उसका क्या हुआ। मैं भी खाली था बोला हे अक़्लरूपी धृतराष्ट्र अब मैं तुम्हें संजय की तरह नव वर्ष 2018 के आगमन का वृतांत सुनाता हूँ।

                                           जब 2017 शुरू हुआ तब उत्तम प्रदेश में समाजवाद उथल पुथल हो रहा था।  टीपू भैया नेताजी और चाचाजी से चलाने के लिए मांगी साईकिल उठाकर ले गए थे और लौटाने के नाम पर कह दिया था कि साईकिल मेरी है नेताजी की तरफ से मैंने खुद साईकिल की वसीयत अपने नाम लिख ली है लिहाजा साईकिल पर मेरा अधिकार है। नेताजी अभी मामले को समझने का दिखावा कर रहे थे और चाचाजी उन्हें चुनाव आयोग में धकेले दे रहे थे नतीजतन नेताजी झुंझला गए और आयोग से कह आये जिसे देनी हो साईकिल उसे ही दे दो मुझे इसकी जरूरत नहीं। आयोग ने देखा टीपू भैया साईकिल लिए बैठें हैं और कागजों के नाम पर छोटा हाथी भरकर वसीयत आयोग में ठेले दे रहे हैं। अंततः चुनाव आयोग ने खुद राहत की साँस लेने के लिए साईकिल टीपू भैया को ही थमा दी।

                                        चाचाजी भावुक होकर कसमें वादे प्यार वफ़ा गाते रह गए। टीपू भैया ने अपनी ही तरह के पढ़े लिखे नए मित्र को साईकिल पर बैठाया और चुनाव सड़क पर ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे गाते निकल लिए। सड़क में गड्ढे ज्यादा थे और मित्र का वजन साईकिल संभाल नहीं पा रही थी सो दोस्ती तो टूटती न टूटती साईकिल टूट गयी। अब टीपू भैया साईकिल की रिपेयर करते बैठे हैं कहते हैं पाँच साल लगेंगे जबकि उनका मित्र देश विदेश घूम रहा है। उत्तम प्रदेश में योगीजी के भगवा के आगे समाजवाद की लाली उतर गयी। दरअसल तो लाली क्या भगवा के सामने पीला हरा नीला हर रंग उतर गया। बहनजी ने सारा गुस्सा evm पर उतारना शुरू कर दिया। बहनजी का कहना है कि evm में नीला रंग भरा ही नहीं गया। चुनाव आयोग ने कहा हमने मशीन में कोई रंग नहीं भरा मशीन सफेद है खुद आकर देख लो लेकिन ऐसी बातें कौन सुने जबकि राजनीती ब जाते खुद लफ्फाजी प्रधान महकमा है।

                                           साल 2018 की शुरुआत ही धमाकेदार रही। ये धमाके दिसंबर के प्रथम सप्ताह में ही शुरू हो गए थे जब अखिल भारतीय राजनितिक पार्टी के अंतर्राष्ट्रीय इलीट भड़भड़िये ने प्रधानमंत्री को हिंदुस्तानी में गाली बकना शुरू कर दिया। मामला गुजरात चुनाव का था इसलिए भयभीत पार्टी ने तुरंत कार्यवाही दिखाने को अपने इलीट लीडर को निलंबित कर भी दिया लेकिन तीर कमान से निकल चुका था। खैर गुजरात चुनाव जीतना कांग्रेस के लिए संभव न था सो हार गयी। लेकिन चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस जातियों के जिस रथ पर चढ़ी वह या तो अंततः कांग्रेस को लेकर डूबेगा या देश को। फ़ैसला जनता को करना है कि अगले दो वर्षों में वह किसे डुबाना चाहेगी।

                                          आरक्षण रथ पर सवार होकर पटेलों का नेता बनने वाले फर्जी केजरीवाल का अपने क्षेत्र में लगभग वही हाल हुआ है जो गुजरात चुनाव में असली केजरीवाल का हुआ है। दरअसल नए नेतृत्व की छाँव में कांग्रेस की राजनीती उत्तर प्रदेश की बहनजी वाली होने लगी है। दलित मुस्लिम गठजोड़ के साथ अन्य जातियों का गठजोड़ बनाने का नया फ़ैसला अतिउत्साह और जल्दबाजी में लिया गया। बहुजन समाज पार्टी की तरह दलित मुस्लिम आधार को अपने पक्ष में स्थायतित्व देने का प्रयास  इसके मूल में है। कांग्रेस की ओर से घटता भाजपा की ओर खिसकता दलित वोट बैंक पार्टी के लिए गहन चिंता का विषय बन गया और इसी की भरपाई के लिए जल्दबाजी में जो फ़ैसला लिया गया है वह पार्टी के लिए भविष्य में जहर की खेती साबित हो सकता  हैं। जहाँ कांग्रेस को बाबू जगजीवन राम, बूटा सिंह या कांशीराम जैसे नेताओं की जरूरत थी वहाँ युवा अध्यक्ष दलितों का जाकिर नाइक पकड़ लाये हैं। यह निश्चित ही विस्फ़ोटक होगा। हिन्दू नाराज न हों इस वजह से आजकल मुसलमानों को साधने का काम विदेश जाकर किया जा रहा है। 1987 के बाद कांग्रेस फिर से दो नावों में पांव फँसा रही है यह बैक फायर भी कर सकता है।
                                         
                                             गुजरात हार के बाद कांग्रेस के पास जश्न मनाने का कोई कारण नहीं था लेकिन जश्न मनाया गया। जश्न मनाने के लिए रिप्रेज़ेंटेटिव फॉर्म ऑफ़ डेमोक्रेसी के मूल सिद्धांत, जो कि भारतीय संविधान में अंगीकृत है, का मजाक उड़ाया गया। कांग्रेसी प्रवक्ता कहने लगे भारत में बीजेपी 31 प्रतिशत वोट लेकर 69 प्रतिशत लोगों पर भी राज कर रही है। पीपुल्स रिप्रेजेंटेशन के सिद्धांत के अलोक में यह तर्क समझ से परे है। कांग्रेस कब 51 प्रतिशत वोट के साथ सत्ता में थी लोगों को याद नहीं जबकि इस बार गुजरात में भाजपा 50 प्रतिशत वोटों के साथ ही सरकार में आयी है। संभतः यह जश्न परम पराजित युवराज के यज्ञोपवीत संस्कार के उपरांत महाराज बनने पर था। महाराज के यज्ञोपवीत की फोटो हमने भी देखी, बंदगला कोट के ऊपर पहने थे। गुजरात हार को कांग्रेस मॉरल विक्ट्री कह कर खुश हो भी सकती है।

                                                  कांग्रेस की मॉरल विक्ट्री न भी हो लेकिन भाजपा की गुजरात विजय भी उत्साह वर्धक नहीं है। ईमानदारी से कहा जाये तो यह दिल तोड़ने वाली जीत है। हुजूरे आजम के राज्य में हुजूर का जलवा जितवा तो लाया लेकिन इसके बाद  सरकार की आर्थिक नीतियों पर जनता की नाराजगी की पोल खुल ही गयी है। दरअसल मनवांछित फॉरेन इन्वेस्टमेंट और मेक इन इंडिया न होने की वजह से लगता है हुजूरे आजम के खजाना वजीर अपने अहलकारों के साथ यह समझाने में सफल रहे कि अगर विदेश से उतना पैसा नहीं आ रहा तो क्यों न जनता की जेब से ही खींच लिया जाये वोट तो हुजूर के नाम पर आ ही रहा है। जनता की जेब में रखे पैसोँ पर हर संभव प्रहार हुआ। यह गलत है सताने वाला है तोड़ने वाला है चिढ़ाने वाला है। आज हालत यह है कि आम आदमी डरता है कहीं इस जेब से उस जेब में पैसे रखने पर टैक्स न लग जाये। आने वाले  भाजपा शासित राज्यों में जो चुनाव होने हैं उनमें भाजपा को नाकों चने चबाने पड़ सकते हैं। और ऐसा आम आदमी पर पड़े आर्थिक प्रहारों के चलते होगा। इसके अतिरिक्त स्थानीय कारण भी होंगे। अब हर राज्य तो मोदीजी का गृह राज्य है नहीं।

                                                     लेख लंबा हो रहा है लेकिन यहाँ अगर मैं आम आदमी पार्टी की बात नहीं करूंगा तो यह अधूरा ही रहेगा। पिछले हफ्ते कविवर कुमार विश्वास को देखा एक हारा हुआ टूटा राजनीतिज्ञ नजर आया हलांकि कवि वैसा ही था जैसा आंदोलन के दिनों में दीखता था। आखिर केजरीवाल ने एक और बलि ले ही ली। केजरीवाल और कुमार विश्वास के राजनितिक चरित्र में मूल अंतर है। अराजक क्रूसेडर एक पूर्णतः फोकस्ड राजनीतिज्ञ हैं वो राजनीती के लिए सिद्धांत छोड़ेंगे अपने ही बनाये नियम तोड़ेंगे बच्चों की झूठी कसमें खाएंगे  यार मारी करेंगे हर तरह का नाटक करेंगे लेकिन सत्ता का उदेश्य नहीं छोड़ेंगे। पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा वाले केजरीवाली जुमले में आज वह खुद उलझे हुए हैं, भ्रष्टाचार निकम्मेपन ओवर एम्बिशस होने के सभी आरोपों को क्रूसेडर महोदय जिस आसानी और बेशर्मी से सह जाते हैं यह सब कविवर के बसका नहीं है।

                                                        कविवर फाइटर नहीं है अनुशासित और फोकस्ड भी नहीं है यह लेखक कवियों शायरों का मूल दोष या गुण होता है। लेकिन कुमार विश्वास एक हद से आगे सिद्धांत नहीं तोड़ पाते एक हद के बाहर कैमरे पर पकड़ा जाने वाला झूठ भी नहीं बोल पाते। कविवर का केजरीवाल से लड़कर जीतना मुश्किल लगता है। हालाँकि दसों दिशाएं सात खंड हारने के बाद अब केजरीवाल के पास जीतने को कुछ नहीं है आगे है तो सिर्फ हार। इस सबके बावजूद कुमार विश्वास क्योंकि जीतने के लिए लड़ने वाला योद्धा नहीं हैं, सो केजरीवाल से जीतना मुश्किल लगता है। उनका पसंदीदा योद्धा अभिमन्यु है अर्जुन नहीं। यानि जीत हार से अलग शहीद होने भर की तमन्ना है। यद्यपि अवसरों से खाली नहीं हैं चाहें तो भाजपा में कभी भी जाकर नेता बन सकते हैं लेकिन उसमें सिर्फ एक नेता जितना ग्लैमर रह जायेगा जबकि विश्वास अगर चाहे तो केजरीवाल को हराने वाला मुख्यमंत्री पद का दावेदार हो सकते हैं। लेकिन कविवर इतना जिम्मेदारी भरा संघर्ष का बोझ उठाने को तैयार होंगे मुझे नहीं लगता।

                                                  कभी गिरते तो कभी गिर के संभलते रहते
                                                  बैठे रहने से तो बेहतर था के चलते रहते
                                                                                                                 (नईम अख्तर)



वादा  है कि कम से कम इस माह बहुत जल्दी जल्दी मिलूंगा।

Sunday 15 January 2017

भय ज्ञान की उतपत्ति का प्रमुख कारण है

गलती सरासर मेरी थी। ट्विटर पर कहता रहा यह ब्लॉग हल्के फुल्के मूड़ में रोजमर्रा टाइप के पठन पाठन के लिए रख छोड़ा है लेकिन ब्लॉग में स्पष्ट नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि मेरे कुछ मित्र मेरी निठल्लेपन की लफ्फाजी में गहन साहित्य ढूंढने का प्रयास करते रहे पर साहित्य न तो था न मित्र पाठकों को मिला। इससे नाराज होकर उन्होंने समीक्षक का रूप धारण कर लिया और कह दिया कुछ लिखने से रह गया है या दो अलग अलग कहानी हैं। क्या बताऊं कि यह कहानी है ही नहीं और जब मेरे पास लिखने को ही कुछ नहीं था तो छोड़ने को क्या होता। खैर मैं उनका शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने सरसरी पोस्ट में गहन मगजपच्ची की। मित्रों के समीक्षक होने पर मैं भले शंकित हूँ उनके ज्ञान पर मुझे कोई संदेह नहीं है।

दरअसल भारत ज्ञान प्रधान देश है। भले हमारे पास करने को काम न हो खाने को रोटी न हो बाँटने को ज्ञान भरपूर है और यह काम हम पूरी निष्ठा से करते आये हैं। वैदिक काल में ज्ञान देने का काम ऋषि मुनि लोग किया करते थे वर्तमान युग में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। कौन कब कहाँ से ज्ञान ठेल जाये पता नहीं चलता। बाहर तो छोड़िये घर में बैठे आदमी पर भी पत्नि बच्चे ज्ञान ठेलना शुरू कर देते हैं इन सब से बच बचा कर सोशल मीडिया या टीवी की शरण में चला गया तो ज्ञान की मिक़दार कई गुना बढ़ जाती है। कल मेरे साथ ऐसा ही हुआ। हुआ यूँ कि टीवी ऑन ही किया था कि विज मंत्री गाँधी दर्शन पर "व्यक्तिगत" ज्ञान देते नजर आये। ज्ञान इतना मौलिक था कि इसे सुनकर RBI बिल्डिंग की भव्य दीवारें थरथरा गयीं कुबेर भगवान की मूर्ति ने तो अदृश्य होने का ही मन बना लिया था। मंत्री जी ने ज्ञान दिया था कि खादी की दुर्दशा से लेकर नोट की दुर्दशा तक गांधीजी का नाम और फोटो जिम्मेदार है। इस मौलिक ज्ञान का झटका अनेक पूर्व वित्तमंत्रियों और RBI गवर्नरों को जरूर लगा होगा कि यह ज्ञान पहले क्यों नहीं मिला। झटका तो भाजपा को भी दिल्ली से लेकर लगा हरयाणा तक लगा लेकिन मंत्री जी ने तटस्थता से ज्ञान को बयान बताकर वापस ले लिया। अब यह कहाँ से कितना वापस गया जनता को समझ नहीं आया।

मूलतः हरयाणा से होने के कारण मैं हरयाणा ब्रिगेड की ज्ञानदायिनी सलाहियत से पूर्णतः वाकिफ़ रहा हूँ। हरयाणा वाले ज्ञान लेते नहीं पर मौलिक ज्ञान की सप्लाई जरूर कर देते हैं। विश्वास ना हो तो अपने दिल्ली वाले माननीय मफ़लर मैन महोदय को ही देख लीजिये वो भी मूलतः हरयाणा से हैं और भारतीय राजनीती में कुटाई और स्याही की महिमा का जो सात्विक ज्ञान उन्होंने दिया है उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। ऐसा ही ज्ञान मफ़लर बाबू साल के पहले दिन रोहतक में में दे रहे थे इससे युग नायक श्री केजरी महाराज का एक हरयाणवी भक्त इतना अभिभूत हुआ कि जवाब में उनको जूते से ज्ञान सप्लाई कर डाला। युग नायक ने तत्काल कह दिया यह भक्त मेरा नहीं मोदी का है। दरअसल भक्त का निशाना चूक गया था और केजरी बाबू को अपने भक्तों पर पूरा विश्वास है कि उनका निशाना नहीं चूकता। अब दिल्ली वाले भक्त ऑटो ड्राइवर लाली भाईसाब का ही उदाहरण देखिये क्या निशाना ताक कर उन्होंने सत्याग्रही तमाचे का ज्ञान दिया था अगले ही घण्टे में में परिवर्तन की राजनीती में व्यस्त आपई महकमा राजघाट पर बैठा नजर आया था।

वैसे साल की शुरुआत में युगनायक केजरी अकेले नहीं थे जो ज्ञान का विमोचन करते नजर आए उधर दूर कर्नाटक के गृहमंत्री बंगलोर में छेड़छाड़ की घटना से इतने द्रवित हुए उनके अंदर बैठे विवेचक ने तत्काल घटना की वजह की जाँच कर पाया कि शराब पीकर हुड़दंग मचा रहे पुरुष मासूम थे और छिड़ने वाली महिलाओं का दोष था कि उन्होंने त्वचा प्रदर्शक वस्त्र धारण किये थे। समस्या सामाजिक है सो अगले ही दिन घटना का समाजवादीकरण हो गया। मुम्बई से अबु आज़मी ने संत मुद्रा धारण कर घटना का एक्सप्लेनेशन सोदाहरण दिया। संत आज़मी जी ने समझाया कि महिलायें शकर हैं और पुरुष चींटियां इसलिये शकर पर चींटियों के आने की प्रक्रिया सहज समझकर तूल न दिया जाये। अबु आज़मी जी ने यह भी समझाया आग को पेट्रोल दिखाओगे तो आग लगेगी ही। यहाँ मुझे थोड़ा तकनीकी कन्फ्यूज़न हो गया। इसमें आग कौन है और पेट्रोल कौन है। अगर महिलाएं आग हैं तो पुरुष पेट्रोल हो न हो क्या फ़र्क पड़ता है आग तो है ही और अगर पुरुष आग हैं तो महिलाएं पेट्रोल हों ना हों क्या फर्क पड़ा। अबु आज़मी कुछ अनर्गल संत निकले।

मैंने इस समाजवादी व्याख्यान की तकनीकी दिक्कत के निराकरण के लिए समाजवादी हैडक्वार्टर की ओर दृष्टिपात किया तो समाजवादी हैडक्वार्टर गम्भीर मुद्रा में चुनाव आयोग को साईकिल के तकनीकी पक्ष समझाता नजर आया। हैडक्वार्टर के चेहरे की गम्भीरता देखते हुए मैंने उधर से चुपचाप निकल लेना ही उचित समझा। अब मुझे नया ज्ञान प्राप्त हुआ....... "भय ज्ञान की उतपत्ति का प्रमुख कारण है" अपनी फजीहत से बचने को भी व्यक्ति मौन रहना श्रेयस्कर समझता है। इसके अलावा मैं पर्सनैलिटी डेवलपमेंट के उस शिक्षक की बात से पूरी तरह सहमत हूँ जिसने ज्ञान में भारी पड़ने पर अपने छात्रों को को समझाया था कि "ज्ञान अधोवस्त्रों की तरह होता है प्रदर्शन की अपेक्षा इसका धारण करना श्रेयस्कर है। अब ये बात अपने नेताओं को कौन समझाये।